Page 177 - BEATS Secondary School
P. 177

बचपि, बुढ़ापा और ज़ िंदगी                                                                                        मन्ित साह की कविता
                                                                                                                                                                                                ू

       बचपि, बुढ़ापा और ज़ िंदगी   -                                            ू बच्चों की िजर से                      मन्ित साह की कविता                                  कक्षा 9
                                                                                                                                            ू
                                                                    मन्ित साह की कविता
             बचपि, बुढ़ापा और ज़ िंदगी
                 -  बच्चों की िजर से                                कक्षा 9
               -  बच्चों की िजर से   ु

             (क ु छ कविताएँ)                               (कछ कविताएँ)                                               कक्षा 9
                                                                    बचपन क्य  है?                                                                                         बचपन क्य  है?
                                                                    बचपन वह समय है जब सूरज की ककरणें
       (कछ कविताएँ)                                            मन्ित साह की कविता

           ु
        बचपि, बुढ़ापा और ज़ िंदगी
                                                                         ू
                                                                    आाँखों में नहीां चुभतीां
        बचपि, बुढ़ापा और ज़ िंदगी                                मन्ित साह की कविता
                                                                         ू
             ऋवि मोहि की कविता
                                                               कक्षा 9
            -  बच्चों की िजर से                                                                                                                                           बचपन वह समय है जब सूरज की ककरणें
                                                                    जब उम्र ननकल ज ने की जल्दी नहीां होती
            -  बच्चों                                          कक्षा 9                                                बचपन क्य  है?
             कक्षा 9  की िजर से

        (क ु छ कविताएँ)

        (क ु छ कविताएँ)                                             बस आज को जीने की आश  बनी रहती                                                                         आाँखों में नहीां चुभतीां
                                                               बचपन क्य  है?

                                                               बचपन क्य  है?
                                                                    जब हर टदन क ु छ कर ज ने की उम्मीद टदल में
             कल तक तो म ाँ की गोद में सोत  थ               ऋवि मोहि की कविता                                          बचपन वह समय है जब सूरज की ककरणें

                                                               बचपन वह समय है जब सूरज की ककरणें

                                                                    बसी रहती
             न ज ने समय इतनी जल्दी कै से गुजर गय               बचपन वह समय है जब सूरज की ककरणें
                                                               आाँखों में नहीां चुभतीां
        ऋवि मोहि की कविता
                                                                    जब ह र ज ने क  डर नहीां होत
                                                               आाँखों में नहीां चुभतीां
             म ाँ के  चूल्हे की रोटिय ां ख त  थ
       ऋवि मोहि की कविता                                   कक्षा 9                                                    आाँखों में नहीां चुभतीां                            जब उम्र ननकल ज ने की जल्दी नहीां होती
        ऋवि मोहि की कविता
                                                               जब उम्र ननकल ज ने की जल्दी नहीां होती
        कक्षा 9
                                                                    बस खेलने क ू दने क  हौसल  बन  रहत
                                                               बस आज को जीने की आश  बनी रहती
        कक्षा 9                                                जब उम्र ननकल ज ने की जल्दी नहीां होती
             आज तक मुाँह में स्व द बच  रह गय

                                                                                                                                                                          बस आज को जीने की आश  बनी रहती
                                                                    जब म ाँ क  ह थ हम री पेश नी के  शशकां जों को
             सुबह-श म इधर-उधर दौड़त
                                                               जब हर टदन क ु छ कर ज ने की उम्मीद टदल में

       कक्षा 9                                                 बस आज को जीने की आश  बनी रहती                          जब उम्र ननकल ज ने की जल्दी नहीां होती
        कल तक तो म ाँ की गोद में सोत  थ
                                                                    सहल  देत   ु
             अब तो बबस्तर में पुतल  बनकर रह गय
        कल तक तो म ाँ की गोद में सोत  थ                        जब हर टदन कछ कर ज ने की उम्मीद टदल में
                                                               बसी रहती
        न ज ने समय इतनी जल्दी कै से गुजर गय                                                                                                                               जब हर टदन कछ कर ज ने की उम्मीद टदल में
                                                                                                                      बस आज को जीने की आश  बनी रहती
                                                               बसी रहती
                                                                    जब द दी के  ह थ से क ु छ ख न  बबन ख ए ही पेि
        न ज ने समय इतनी जल्दी कै
                                                               जब ह र ज ने क  डर नहीां होत
             मूाँगफली द ाँतों से तोड़त  से गुजर गय         कल तक तो म ाँ की गोद में सोत  थ                                                                                                             ु
        म ाँ के  चूल्हे की रोटिय ां ख त  थ
                                                                    भर देत  क  डर नहीां होत
             अब पनीर भी न चब य  ज त
        म ाँ के  चूल्हे की रोटिय ां ख त  थ                     जब ह र ज ने
                                                               बस खेलने क ू दने क  हौसल  बन  रहत
        आज तक मुाँह में स्व द बच  रह गय
                                                                                                                                                                          बसी रहती
                                                               बस खेलने क ू दने क  हौसल  बन  रहत
                                                                    जब छोिे-छोिे पैर बहत लांबे र स्ते न प लेते
                                                                                                                                                   ु
                                                           न ज ने समय इतनी जल्दी कै से गुजर गय
                                                               जब म ाँ क  ह थ हम री पेश नी के  शशकां जों को
             म ाँ से होती लड़ ई तो मन ने भी मैं ही ज त
        आज तक मुाँह में स्व द बच  रह गय
       कल तक तो म ाँ की गोद में सोत  थ                                                  ु                             जब हर टदन कछ कर ज ने की उम्मीद टदल में
        सुबह-श म इधर-उधर दौड़त
                                                                    जब छोिी-छोिी आाँखों में बड़े-बड़े सपने अक्सर
             आज जब मेरी ह लत खर ब
        सुबह-श म इधर-उधर दौड़त                                 जब म ाँ क  ह थ हम री पेश नी के  शशकां जों को
                                                               सहल  देत
        अब तो बबस्तर में पुतल  बनकर रह गय
                                                                    झलक ज ते
                                                               सहल  देत
             तो कोई न पूछने आत
                                                           म ाँ के  चूल्हे की रोटिय ां ख त  थ
        अब तो बबस्तर में पुतल  बनकर रह गय
                                                               जब द दी के  ह थ से क ु छ ख न  बबन ख ए ही पेि
        मूाँगफली द ाँतों से तोड़त
       न ज ने समय इतनी जल्दी कै से गुजर गय                                                                            बसी रहती                                            जब ह र ज ने क  डर नहीां होत
                                                                    जब ब ररश की बूाँदें हल्के  से चेहरे को सहल  देतीां
             कल तक भगव न से न ज ने क्य -क्य  रह
        मूाँगफली द ाँतों से तोड़त                              जब द दी के  ह थ से क ु छ ख न  बबन ख ए ही पेि
                                                               भर देत
        अब पनीर भी न चब य  ज त
                                                                                                                                                                                                  ू
                                                                    जब कां धों पर बोझ शसफफ  ककत बों क  थ ,
                                                               भर देत
                                                                                                                      जब ह र ज ने क  डर नहीां होत
             म ाँगत   न चब य  ज त
        अब पनीर भी                                         आज तक मुाँह में स्व द बच  रह गय                                                                                बस खेलने कदने क  हौसल  बन  रहत
                                                               जब छोिे-छोिे पैर बहत लांबे र स्ते न प लेते
                                                                                   ु
        म ाँ से होती लड़ ई तो मन ने भी मैं ही ज त
       म ाँ के  चूल्हे की रोटिय ां ख त  थ
                                                                    ज़जम्मेद ररयों क  नहीां े र स्ते न प लेते
                                                                                   ु
             लेककन अब तो जीने की भ वन  ही बुझ गई
                                                               जब छोिी-छोिी आाँखों में बड़े-बड़े सपने अक्सर
        म ाँ से होती लड़ ई तो मन ने भी मैं ही ज त              जब छोिे-छोिे पैर बहत लांब
        आज जब मेरी ह लत खर ब
                                                                                                                                                                          जब म ाँ क  ह थ हम री पेश नी के  शशकां जों को
                                                                    जब टदल की ही ब त जुब ां पर भी रहती
                                                               झलक ज ते
        आज जब मेरी ह लत खर ब                                   जब छोिी-छोिी आाँखों में बड़े-बड़े सपने अक्सर           बस खेलने कदने क  हौसल  बन  रहत
             लग  थ  ज़ ांदगी होगी लांबी
                                                                                                                                               ू
                                                           सुबह-श म इधर-उधर दौड़त
        तो कोई न पूछने आत
       आज तक मुाँह में स्व द बच  रह गय
                                                                    जब हम त रों को गगनते हए च ाँद को कह नी
             मगर गुजर गई ऐसे जैसे सुबह से श म
        तो कोई न पूछने आत                                      झलक ज ते                      ु
                                                               जब ब ररश की बूाँदें हल्के  से चेहरे को सहल  देतीां
        कल तक भगव न से न ज ने क्य -क्य  रह
                                                                                                                                                                          सहल  देत
                                                                    सुन य  करते
             ...  भगव न से न ज ने क्य -क्य  रह
        कल तक                                                  जब ब ररश की बूाँदें हल्के  से चेहरे को सहल  देतीां     जब म ाँ क  ह थ हम री पेश नी के  शशकां जों को
                                                               जब कां धों पर बोझ शसफफ  ककत बों क  थ ,
                                                           अब तो बबस्तर में पुतल  बनकर रह गय
        म ाँगत
       सुबह-श म इधर-उधर दौड़त
                                                               ज़जम्मेद ररयों क  नहीां
        म ाँगत                                                 जब कां  धों पर बोझ शसफफ  ककत बों क  थ ,

        लेककन अब तो जीने की भ वन  ही बुझ गई
                                                                    मगर ननकल गय  वह बचपन
                                                                                                                                                                                                                     ु

                                                               जब टदल की ही ब त जुब ां पर भी रहती
        लेककन अब तो जीने की भ वन  ही बुझ गई                    ज़जम्मेद ररयों क  नहीां                                 सहल  देत                                            जब द दी के  ह थ से कछ ख न  बबन ख ए ही पेि
                                                           मूाँगफली द ाँतों से तोड़त
        लग  थ  ज़ ांदगी होगी लांबी
       अब तो बबस्तर में पुतल  बनकर रह गय
                                                                    वक़्त की रफ्त र से बीत गय  वह बचपन
        लग  थ  ज़ ांदगी होगी लांबी                              जब टदल की ही ब त जुब ां पर भी रहती

                                                               जब हम त रों को गगनते हए च ाँद को कह नी
                                                                                       ु
        मगर गुजर गई ऐसे जैसे सुबह से श म
                                                                    ल ख ब र रोकने पर भी चल  गय  वह बचपन,
                                                                                                                                                                          भर देत
                                                                                        ु

        मगर गुजर गई ऐसे जैसे सुबह से श म                       जब हम त रों को गगनते हए च ाँद को कह नी                 जब द दी के  ह थ से कछ ख न  बबन ख ए ही पेि
                                                               सुन य  करते
        ...
       मूाँगफली द ाँतों से तोड़त                           अब पनीर भी न चब य  ज त                                                                                 ु
                                                                    मेर  बचपन
        ...                                                    सुन य  करते


                                                                                                                      भर देत                                              जब छोिे-छोिे पैर बहत लांबे र स्ते न प लेते
                                                               मगर ननकल गय  वह बचपन
                                                                                                                                                                                                                   ु

                                                           म ाँ से होती लड़ ई तो मन ने भी मैं ही ज त
       अब पनीर भी न चब य  ज त
                                                               मगर ननकल गय  वह बचपन

                                                               वक़्त की रफ्त र से बीत गय  वह बचपन
                                                                                                                                                                          जब छोिी-छोिी आाँखों में बड़े-बड़े सपने अक्सर
                                                               वक़्त की रफ्त र से बीत गय  वह बचपन                      जब छोिे-छोिे पैर बहत लांबे र स्ते न प लेते
                                                               ल ख ब र रोकने पर भी चल  गय  वह बचपन,

                                                           आज जब मेरी ह लत खर ब
       म ाँ से होती लड़ ई तो मन ने भी मैं ही ज त                                                                                                               ु
                                                               ल ख ब र रोकने पर भी चल  गय  वह बचपन,

                                                               मेर  बचपन

                                                               मेर  बचपन                                                                                                  झलक ज ते
                                                           तो कोई न पूछने आत
       आज जब मेरी ह लत खर ब                                                                                           जब छोिी-छोिी आाँखों में बड़े-बड़े सपने अक्सर
                                                                                                                      झलक ज ते
       तो कोई न पूछने आत                                   कल तक भगव न से न ज ने क्य -क्य  रह                                                                             जब ब ररश की बूाँदें हल्के  से चेहरे को सहल  देतीां
                                                                                                                                                                          जब कां धों पर बोझ शसफफ  ककत बों क  थ ,
                                                           म ाँगत
       कल तक भगव न से न ज ने क्य -क्य  रह                                                                             जब ब ररश की बूाँदें हल्के  से चेहरे को सहल  देतीां
                                                                                                                      जब कां धों पर बोझ शसफफ  ककत बों क  थ ,
       म ाँगत                                              लेककन अब तो जीने की भ वन  ही बुझ गई                                                                            ज़जम्मेद ररयों क  नहीां
                                                           लग  थ  ज़ ांदगी होगी लांबी
       लेककन अब तो जीने की भ वन  ही बुझ गई                                                                            ज़जम्मेद ररयों क  नहीां                              जब टदल की ही ब त जुब ां पर भी रहती
                                                                                                                                                                          जब हम त रों को गगनते हए च ाँद को कह नी
                                                           मगर गुजर गई ऐसे जैसे सुबह से श म
       लग  थ  ज़ ांदगी होगी लांबी                                                                                      जब टदल की ही ब त जुब ां पर भी रहती                                                                     ु
                                                                                                                                                                          सुन य  करते
                                                           ...
                                                                                                                                                                         ु
       मगर गुजर गई ऐसे जैसे सुबह से श म                                                                               जब हम त रों को गगनते हए च ाँद को कह नी
       ...                                                                                                            सुन य  करते
                                                                                                                                                                          मगर ननकल गय  वह बचपन
                                                                                                                                                                          वक़्त की रफ्त र से बीत गय  वह बचपन
                                                                                                                      मगर ननकल गय  वह बचपन
                                                                                                                                                                          ल ख ब र रोकने पर भी चल  गय  वह बचपन,
                                                                                                                      वक़्त की रफ्त र से बीत गय  वह बचपन
                                                                                                                                                                          मेर  बचपन
                                                                                                                      ल ख ब र रोकने पर भी चल  गय  वह बचपन,
                                                                                                                      मेर  बचपन
   172   173   174   175   176   177   178   179   180   181   182